राजनीति में हो रहा, है दो दूनी पाँच।
हीरे शेष न रह गए, बेच-खरीदो काँच।।
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लोक न मर्यादित रहा, तोड़ रहा कानून।
लूट-कुचलकर कर रहा, लोक; तंत्र का खून।।
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नाश प्रकृति का कर रहा, मानव; दानव भाँति।
प्रकृति कुद्ध करती खड़ी, विपदाओं की पाँति।।
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जिसको अवसर मिल रहा, वही कर रहा लूट।
मर्यादाएँ शेष जो, नित्य रही हैं टूट।।
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भ्रष्ट करें भगवान कह, ऋषि-संतों को भक्त।
तन-मन-धन अर्पित करें, चाह न हों अनुरक्त।।
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28-5-2018, 07999449618
salil.sanjiv@gmail.com
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